सिंधिया परिवार का इतिहास, वंशावली, राजवंश, संपत्ति, हिस्ट्री, ग्वालियर (Scindia Family, History, Dynasty, Tree, Members, Property Net Worth in Hindi)
भारत का इतिहास बहुत रहस्य और दिलचस्प रहा है. इतिहास को जानने की जिज्ञासा हर किसी के मन में रहती है. आज एक ऐसे ही इतिहास के सुनहरे वंश के बारे में हम आपको बताने वाले हैं. एक ऐसा राजघराना जो वर्तमान में भी मौजूद है. जी हां हम बात कर रहे हैं सिंधिया परिवार की जो ग्वालियर का एक मराठा शासक परिवार था. आइए सिंधिया परिवार को थोड़ा और करीब से जानते हुए उनके इतिहास के बारे में संपूर्ण जान लेते है.
कौन था सिंधिया वंश ?
सिंधिया एक ऐसा मराठा शासक परिवार है, जिसने ग्वालियर पर अपना शासन किया. सिंधिया वंश एक ऐसा वंश था, जिसने 18वी शताब्दी के दौरान उत्तर भारत की राजनीति के अंदर अपनी प्रमुख भूमिका निभाते हुए देश के प्रति योगदान दिया. सिंधिया वंश के संस्थापक राणोजी सिंधिया थे, जिन्हें 1726 ईसवी में मराठा राज्य के प्रमुख मंत्री द्वारा मालवा का प्रभारी बनाया गया था.1750 ईस्वी के दौरान राणोजी सिंधिया ने उज्जैन में अपनी एक अलग राजधानी स्थापित कर इतिहास रच दिया था. बाद में राणोजी सिंधिया अपनी उस राजधानी को ग्वालियर के पहाड़ी दुर्ग में लेकर स्थापित कर दिया.
सिंधिया परिवार के सदस्यों के नाम | जीवनकाल |
रनोजी सिंधिया (सिंधिया वंश के संस्थापक) | 19 जुलाई 1745 (म्रत्यु) |
जयप्पा जीराव सिंधिया (रनोजी सिंधिया के पुत्र) | 1720-1755 |
महादजी शिंदे (जयप्पा जीराव सिंधिया के पुत्र) | 1730- 1794 |
जयाजीराव सिंधिया (महादाजी शिंदे के पुत्र) | 1834-1886 |
माधोराव सिंधिया (जयाजीराव सिंधिया के पुत्र) | 1876-1925 |
जॉर्ज जीवाजी राव सिंधिया (माधोराव सिंधिया के पुत्र) | 1916-1961 |
विजयाराजे सिंधिया (जीवाजी राव सिंधिया की पत्नी) | 1919-2001 |
यशोधरा राजे सिंधिया (जीवाजीराव और राजमाता विजयाराजे सिंधिया की छोटी बेटी) | 19 जून 1954 (जन्म) |
वसुंधराराजे (जीवाजीराव और राजमाता विजयाराजे सिंधिया की छोटी बेटी) | 8 मार्च 1953 (जन्म) |
माधव राव सिंधिया (जीवाजीराव और राजमाता विजयाराजे सिंधिया के पुत्र) | 1945-2001 |
ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया | 1 जनवरी 1971 (जन्म) |
संतान गोद लेकर सिंधिया परिवार का वंश चलाया गया
- सिंधिया परिवार की 4 पीढ़ियों तक उनके परिवार में कोई संतान नहीं हुई. जिसकी वजह से 4 पीढ़ियों तक उन्होंने सन्तानें गोद ले कर वंश को आगे बढ़ाया.
- सिंधिया राजवंश के पहले शासक महादजी रहे जिनको कोई सन्तान प्राप्त नहीं थी. उन्होंने अपने जीवन में नौ शादियां की थी परंतु संतान सुख उन्हें कोई भी पत्नी नहीं दे पाई. उनकी केवल एक ही पुत्री थी जिसका नाम बाला बाई था. बाद में उन्होंने आनंद राव के पुत्र दौलत राव को गोद ले कर उसे सिंधिया राजवंश का अगला महाराज घोषित किया.
- दौलत राव को 15 साल की उम्र में ग्वालियर राजवंश का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया, जिसके बाद उन्हें वहां का महाराज बना दिया गया. उन्होंने लगभग 33 साल तक ग्वालियर का राजवंश शासन संभाला और 21 मार्च 1827 को उनका निधन हो गया.
- दौलत राव सिंधिया ने 1803 में जनरल गेरार्ड लेक से चार बार युद्ध किया, उसके बावजूद भी वे पराजित हुए जिसके बाद उन्हें सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ा जिसकी वजह से उन्होंने दिल्ली पर अपना नियंत्रण छोड़ दिया. लेकिन इसके बावजूद भी 1817 तक राजपुताना को बनाए रखने में सक्षम रहे उसके बाद दे 1818 में अंग्रेजों के गुलाम बन गए बाद में 1947 तक राज घराने के रूप में वह परिवार जीवित रहा.
- दौलतराव के भी कोई संतान नहीं थी जिसके चलते उन्होंने खानदान के ही एक पुत्र मुकुट राव के बेटे जनकोजी राव को गोद लेकर सत्ता के लिए वारिस घोषित किया और बाद में उन्हें ग्वालियर का राजा घोषित किया.
- जनकोजी राव ने भी अपने शासनकाल में बहुत सारे बड़े-बड़े काम किए और बहुत से युद्ध लड़े उनकी भी कोई संतान नहीं हुई और बाद में 1843 के दौरान उनका देहांत हो गया.
- जनकोजी राव की संतान के रूप में भागीरथ राव को सियासत का अधिकारी घोषित किया गया. मात्र 8 साल की उम्र में उन्हें वहां का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया क्योंकि जनकोजी राव की मृत्यु के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी को लगा कि जनकोजी राव मर गए हैं तो ग्वालियर की रियासत को उन्होंने अपने कब्जे में करने के लिए ग्वालियर पर आक्रमण करना चाहा.
- लेकिन सिंधिया परिवार में मौजूद सरदार संभाजीराव ने अंग्रेजों के इस प्रयोजन पर पानी फेर दिया. जनकोजी राव की मृत्यु की खबर फैलने से पहले ही यह घोषित करवा दिया कि 8 साल की भागीरथ राव को जनकोजी राव के नाम से महाराज घोषित कर दिया गया है.
- जीवाजीराव ग्वालियर के महाराज के रूप में 26 जून 1916 से लेकर 16 जुलाई 1961 तक कार्यरत रहे. सिंधिया परिवार की मौजूदगी आरंभ से ही राजनीति में बहुत कड़ी रही है.
भूतकाल राजनीति
हिंदू महासभा पारंपरिक रूप से ग्वालियर-गुना क्षेत्र में लोकप्रिय रही है. 1950 के दशक में, जीवाजीराव, ज्योतिरादित्य के दादा का मानना था कि पार्टी के लिए ग्वालियर का गुना क्षेत्र बहुत अहम है – और इस बात को जवाहरलाल नेहरू को काफी हद्द तक प्रभावित किया. सन 1956 में जब महाराजा बॉम्बे में थे, तो शाही संघी विजया राजे सिंधिया, प्रधानमंत्री नेहरु और उनकी बेटी इंदिरा से मिलने के लिए दिल्ली गई. उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि जीवाजीराव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी, और उन्होंने हिंदू महासभा का समर्थन नहीं किया.
नेहरू ने विजया राजे से गोविंद बल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री से मिलने के लिए कहा, जिन्होंने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा. विजया राजे 1957 में गुना से कांग्रेस सांसद और 1962 में ग्वालियर से सांसद बनीं. इस बीच, महाराजा का 1961 में निधन हो गया.
25 मार्च, 1966 को, जब मध्य प्रदेश सूखे की चपेट में था, बस्तर के लोकप्रिय महाराजा, प्रवीर चंद्र भंज देव की उनके 11 सहयोगियों के साथ जगदलपुर में महल में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अपनी आत्मकथा में, राजपथ से लोकपथ पर (1997), विजया राजे ने महाराजा की हत्या के बारे में लिखा: “शायद सच्चाई कभी सामने ही नहीं आ पाएगी. लेकिन यह सच है कि वे उन लोगों द्वारा मारा गया था जो महल में अपना रास्ता बनाने में कामयाब रहे. हत्यारा पुलिस का कोई व्यक्ति था, जिसने बाहर जमा भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली चलाई थी. ”
उस सितंबर में, ग्वालियर में पुलिस ने गोलीबारी की और प्रदर्शनकारी दो छात्रों की हत्या कर दी. उस समय मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा थे, जो अहंकार के लिए प्रतिष्ठा और शाही परिवारों के प्रति अरुचि रखते थे. जब तक राजमाता, जो तब तक नाराज़ थीं, उन्हें “नराज-माता” कहा जाने लगा, तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने इसका अवसर देखा.
सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भी सिंधिया परिवार ने अपना महत्व कायम रखते हुए सरदार पटेल और ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव के बीच एक संबंध कायम रहा. उस समय जब सरदार पटेल की मृत्यु हो गई तब रियासतों का विलय भारतीय संघ में कर दिया गया. उस समय सरदार पटेल उन सभी शासकों का बेहद सम्मान किया करते थे जो लोग अपना शासन बहुत अच्छी तरीके से निभाया करते थे.
वर्तमान राजनीति
वर्तमान स्थिति में ज्योतिरादित्य सिंधिया जिन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण फैसला भाजपा में शामिल होने का लिया हालांकि उनकी कहानी कांग्रेस से भी काफी हद तक जुड़ी हुई है. ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया ने 1950 के दशक के अंत में कांग्रेस के सांसद के रूप में लोकसभा चुनाव में अपनी अहम जीत दर्शाते हुए राजनीति में प्रवेश किया था. बाद में उन्होंने 1960 के मध्य में कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और स्वतंत्र पार्टी में शामिल होने का अहम फैसला लिया. कुछ समय पश्चात वे जनसंघ में शामिल हो गई थी और एक अहम पर उन्होंने हासिल किया उस समय वह पार्टी की गॉड मदर के रूप में जानी जाने लगी.
उन्होंने उस समय के दौरान पार्टी को आर्थिक समर्थन भी प्रदान किया जब उनके बेटे माधव राज सिंधिया ने 1972 में जनसंघ की टिकट पर लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की थी उस समय माधवराव सिंधिया मात्र 26 साल की सबसे कम उम्र के सांसद बने थे. भारत में आपातकालीन स्थिति के दौरान उन्हें श्रीमती गांधी के आदेश पर कैद में भी ले लिया गया था. इसके तुरंत बाद विजयाराजे सिंधिया भाजपा के संस्थापक सदस्यों में शामिल हो गई और साल 1879 में पार्टी की मुख्य शक्ति केंद्र बनी रही.
हालांकि वे अपने बेटे माधवराव के खिलाफ राजनीति में खड़ी हो गई थी जब 1980 में आपातकालीन स्थिति समाप्त हो गई तब उन्होंने फिर से पक्ष बदलकर गुना की लोकसभा सीट से कांग्रेस पार्टी की तरफ से लोकसभा की सीट जीत ली. 1984 के दौरान जब लोकसभा चुनाव का समय था उस समय इंदिरा गांधी की मृत्यु हो गई तब उन्होंने ग्वालियर की सीट में भाजपा के मुख्य प्रत्याशी अटल बिहारी को हराकर एक नया इतिहास रचा.
उस वर्ष उन्हें रेल मंत्री के पद पर आसीन किया गया और साथ ही सेवाएं प्रदान करने वाली और समाज सुधारक के नाम का श्रेय प्रदान किया गया. बाद में साल 2001 में विमान दुर्घटना के दौरान उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे ने उपचुनाव के दौरान ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना लोकसभा की सीट अपने नाम कर ली और अपनी इस प्रभावशाली जीत के चलते उन्होंने सरकार में बिजली, वाणिज्य और उद्योग, संचार और साथ ही आईटी राज्यमंत्री के रूप में कार्य किया.
वर्तमान स्थिति में 11 मार्च 2020 के दौरान कांग्रेस के सदस्य के रूप में लगभग उन्होंने अपने जीवन के दो दशक बिता दिए परंतु अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के बहुत बड़े और अहम फैसले ने उन्हें भाजपा में शामिल कर दिया है. उनके परिवार का राजनैतिक इतिहास बहुत ही उतार-चढ़ाव वाला रहा है जिसे उन्होंने अब भाजपा में शामिल होकर एक ठहराव दे दिया है.
इतिहास ने खुद को दोहराया
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक ऐसी पार्टी जिसके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया लगभग 18 वर्षों से जुड़े हुए हैं. उन्होंने उस पार्टी को नकारते हुए अब बीजेपी का दामन थाम लिया है इसके पीछे दो मुख्य कारण रहे पहला वह मुख्यमंत्री की सीट पर चुनाव लड़ते हुए हार गए और बाद में साल 2002 से 19 तक जो क्षेत्र उनके परिवार का गढ़ रहा है उस गुना क्षेत्र से लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का चुनाव भी हार गए. कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है जब 1967 में राजमाता ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी ने भी खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया था जिनकी वजह से उनके निकलते ही द्वारका प्रसाद मिश्रा की सरकार का पतन हो गया था ठीक इसी प्रकार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस का दामन छोड़कर अब बीजेपी को अपनाना सही समझा है.
अन्य पढ़ें –